बुद्ध की शिक्षा में भी ध्यान की अनेक अवस्थाएं हैं

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vuddha
बौद्ध संस्म्यकार क सम्यक समाधि सम्मासमाधि: बुद्ध की शिक्षा में भी ध्यान की अनेक अवस्थाएं हैं जिनकी प्राप्ति की जा सकती है। स्वयं बुद्ध को संबोधि प्राप्त करने से पहले समाधि की आठ अवस्थाओं की शिक्षा मिली थी और वे उनका अभ्यास करते रहे। फिर भी वे समथ समाधियां उन्हें मुक्ति नहीं प्रदान कर सकीं। इसलिए जब वे स्वयं समाधि की शिक्षा देने लगे उन्होंने इस बात पर ज़्यादा फोकस दिया कि वे सिर्फ अंतर्दृष्टि (प्रज्ञा) विकास के सोपान हैं।
ध्यान केंद्रित करने से वर्तमान क्षण की जागरूकता का विकास होता है। क्षण-प्रति-क्षण की इस जागरूकता को यथासंभव लंबे से लंबे क्षण तक बनाए रखना सम्यक समाधि है।

Baudh Sanskar: बुद्ध की शिक्षा

सामान्य जीवन के दैनिक क्रियाकलापों में भी समाधि की आवश्यकता होती है। लेकिन यह आवश्यक रूप से सम्यक समाधि नहीं है। एक व्यक्ति अपनी ऐंद्रिय इच्छाओं की पूर्ति अथवा डर को पहले से ही निवारण के लिए ध्यान कर सकता है। एक लोमड़ी अपना सारा ध्यान खरगोश के बिल पर केंद्रित करती हआ इस तैयारी में प्रतीक्षा करता है, कि जैसे ही खरगोश बाहर निकले, तैसे ही उस पर झपट पड़े।

सोया बच्चा रात को अपने कमरे के सबसे अंधेरे कोने की ओर इस ख्याल से घूरता है कि वहां कोई भूत छिपा है। इनमें से कोई भी समाधि नहीं है, वह समाधि जिसका प्रयोग मुक्ति के लिए किया जा सके। समाधि में हमारा ध्यान एक ऐसी वस्तु पर केंद्रित होना चाहिए जो सभी प्रकार के राग, द्वेष और मोह से मुक्त हो।

आनापान-सति का अभ्यास करते हुए हम पाते हैं कि बिना टूटे ध्यान की निरंतरता को बनाए रखना कितना कठिन है। सांस पर ध्यान केंद्रीभूत करने के दृढ़ संकल्प के बाबजूद मन बिना बताए चुपके से दूर खिसक जाता है। हम अपने को मदोन्मत्त व्यक्ति की तरह पाते हैं जो सीधी रेखा में चलने की कोशिश करता है लेकिन उसके पैर इधर-उधर बहकजाते हैं। हम सचमुच ही अपने मोह और भ्रम से मदमस्त हैं । इसलिए हम भूत अथवा भविष्य, राग अथवा द्वेष के बीच भटकते रहते हैं। हम सतत, निरंतर जागरूकता के ऋजु (सीधे) पथ पर टिके नहीं रह पाते।

Baudh Sanskar: हताश अथवा निरुत्साहित न हों

साधक के रूप में यह हमारी अक्लमंदी होगी कि जब कठिनाइयां आती हैं, हम हताश अथवा निरुत्साहित न हों। इसकी बजाय हमें यह समझना चाहिए कि वर्षों से पड़ी मानसिक आदतों को बदलने में समय लगता है। यह केवल बारंबार, लगातार, धैर्यपूर्वक, दृढ़तापूर्वक काम करने से ही हो सकता है। जैसे ही हम जानें कि वह भटक गया है, हमारा लक्ष्य सिर्फ मन को केंद्रित कर सांस पर फिर से वापस लाना है।

यदि हम ऐसा कर सकते हैं तो हमने भटकने वाले मन को बदलने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठा लिया है। लगातार अभ्यास से अपनी सजगता को और अधिक जल्दी वापस लौटाना संभव हो जाता है। यों धीरे-धीरे भटकने की अवधि छोटी होती जाती है और निरंतर अविच्छिन्न जागरूकता की अवधि लंबी होती जाती है।

जैसे-जैसे समाधि दृढ़तर होती है हम शांत और प्रसन्न होते हैं और ऊर्जा से भरपूर होने का अनुभव करने लगते हैं। धीरे-धीरे सांस बदलने लगती है, कभी मंद, कभी नियमित, कभी उथली और कभी ऐसा भी समय आता है जब लगता है कि सांस बिल्कुल रुक गयी है। वास्तव में जैसे ही दिमाग़ शांत हो जाता है, वैसे हमारा शरीर भी शांत हो जाता है, और मेटाबोलिज्म (जीवन को संतुलित बनाये रखने के लिए रासायनिक क्रिया) मद्धम पड़ जाता है जिससे आक्सीजन की आवश्यकता कम हो जाती है।

इस अवस्था में आनापान-सति का अभ्यास करने वाले कुछ साधकों को आंख बंद कर बैठने पर प्रकाश, दिव्य-दर्शन, अद्भुत ध्वनि सुनने आदि का असाधारण अनुभव हो सकता है। ये तथाकथित अतींद्रिय अनुभव केवल इस तथ्य के संकेतक हैं कि मन ने समाधि की ऊंची अवस्था प्राप्त कर ली है। अपने आप में ये घटनाएं कोई महत्त्व नहीं रखतीं और न ही उन पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

Baudh Sanskar: कुछ मामलों में ऐसा होता है

जागरूकता का आलंबन सांस ही बनी रहती है। इसके अतिरिक्त कोई भी वस्तु विघ्न-बाधा ही है। हमें ऐसे अनुभवों की आशा भी नहीं करनी चाहिए। कुछ मामलों में ऐसा होता है और कुछ में नहीं। ये सभी असाधारण अनुभव केवल मील के पत्थर हैं जो साधना पथ पर हमारी प्रगति की सूचना देते हैं, कभी-कभी मील के ये पत्थर हमारी आँखों से ओझल रहते हैं, व साधना में हमारी इतनी ध्यानमग्नता होती है, जिस कारण हम इनपर बिना कोई ध्यान दिए प्रगति के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं।

लेकिन यदि हम इन मील के पत्थरों को अपना चरम लक्ष्य मानकर उनसे चिपकेंगे तो हमारी प्रगति बिल्कुल ही अवरुद्ध हो जाती है। आखिर में ऐसे असंख्य असाधारण अतींद्रिय अनुभव हमें होते हैं। साधना करने वाले साधक ऐसे अनुभवों की अपेक्षा नहीं करते बल्कि अपनी प्रकृति की वास्तविकता जानने की कामना करते हैं जिससे कि उन्हें दुःखों से मुक्ति मिल सके।

अतः हम केवल सांसों पर ध्यान केंद्रित करते रहते हैं। जैसे-जैसे मन अधिक एकाग्र होता है, सांस सूक्ष्म, सूक्ष्मतर होती जाती है और उसे पकड़ना कठिन हो जाता है। इस कारण एकाग्र बने रहने के लिए और अधिक प्रयास करना पड़ता है। इस प्रकार हम अपने मन पर शान चढ़ाना/धार देना जारी रखते हैं, ध्यान को अधिक तीक्ष्ण बनाते हैं जिससे कि यह ज़मीनी हक़ीक़त का उल्लंघन कर अपने अंदर की बारीक हक़ीक़त को जानने के लिए फायेदेमंद समाग्रि बन सके।

एकाग्रता बढ़ाने के लिए अन्य अनेक तकनीक भी हैं। किसी को एक शब्द पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उसे बार-बार दुहराने के लिए कहा जाता है या किसी मूर्ति पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उसे बार-बार लगातार देखने को कहा जाता है अथवा कोई एक विशेष शारीरिक क्रिया को बार-बार करने को कहा जा सकता है। ऐसा करने में वह व्यक्ति अपने ध्यान के आलंबन में ध्यानमग्नता हो जाता है और समाधि की निर्वाण अवस्था प्राप्त करता है।

बेशक यह स्थिति जब तक बरकरार रहती है, बहुत सुखद होती है लेकिन जब यह ख़तम हो जाती है, तो वह अपने आपको साधारण जिंदगी की उन्हीं पहले जैसी उलझनों में फिर उलझा हुआ पाता है, यह तकनीक मन की सतह पर शांति तथा खुशी की एक परत का विकास करती है परंतु गहन स्तर पर हमारे मन के पुराने संस्कार अछूते पड़े रहते हैं।

इन तकनीकों में प्रयुक्त ध्यान के आलंबन हमारी क्षण-प्रति-क्षण की सच्चाई से संबंध नहीं रखते। इसमें जिस परमानंद की प्राप्ति होती है, वह आरोपित, इरादतन कृत्रिम होती है न कि शुद्ध निर्मल चित्त से स्वतः स्फूर्त। सम्यक समाधि आध्यात्मिक नशा नहीं हो सकती है। इसे सभी प्रकार की कृत्रिमताओं और भ्रांतियों से मुक्त होना चाहिए।

Baudh Sanskar: बुद्ध की शिक्षा में ध्यान

बुद्ध की शिक्षा में भी ध्यान की अनेक अवस्थाएं हैं जिनकी प्राप्ति की जा सकती है। स्वयं बुद्ध को संबोधि प्राप्त करने से पहले समाधि की आठ अवस्थाओं की शिक्षा मिली थी और वे उनका अभ्यास करते रहे। फिर भी वे समथ समाधियां उन्हें मुक्ति नहीं प्रदान कर सकीं। इसलिए जब वे स्वयं समाधि की शिक्षा देने लगे उन्होंने इस विषय पर ज़्यादा फोकस दिया कि वे केवल अंतर्दृष्टि (प्रज्ञा) उन्नत के सीढ़ी हैं।

साधक समाधि की क्षमता का विकास परमानंद अथवा आनंदातिरेक के अनुभव के लिए नहीं करता है। वह अपने मन को एक ऐसे उपकरण के रूप में तैयार करता है जिससे अपनी सच्चाई की गवेषणा की जा सके और उन सब संस्कारों को दूर किया जा सके जो उनके दुःख के मूल कारण हैं। यही सम्यक समाधि है।

  • पुस्तक: जीने की कला (विपश्यना साधना)
  • विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
  • भवतु सब्ब मंङ्गलं, भवतु सब्ब मंङ्गलं, भवतु सब्ब मंङ्गलं
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